निश्चित रूप से ऐसी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ही चाहिए । अपने विचारों एवं धारणाओं के प्रति एक तर्कपूर्ण दृष्टिकोण तो रखना ही चाहिए, जैसे-हम अपने भाई-दोस्त से बहुत प्यार करें, यह अच्छी बात है; परंतु जब उनका किसी दूसरे से झगड़ा हो जाए, तो दूसरे के पक्ष को भी सुनने से प्यार कम नहीं हो जाता । यदि ऐसा ही दृष्टिकोण हम अपने विचारों के प्रति भी रखें, तो कोई विवाद ही नहीं होगा ।
वस्तुत: धार्मिक रूढ़िवाद एवं बौद्धिक रूढ़िवाद-दोनों ही विचारों की स्वस्थ अभिव्यक्ति में बाधक हैं । व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति के प्रति खुद सतर्कता बरतनी चाहिए । जैसे, मनुष्य अपने चलने के अधिकार का प्रयोग कर समुद्र पर चलने या कुएं में गिरने की कोशिश नहीं करता; उसी प्रकार उसे अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग अपने को अनैतिक या धूर्त बनाने के लिए भी नहीं करना चाहिए ।
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