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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस पूरे विवाद में पूर्ण स्वतंत्रता के समर्थक ‘विस्तृत मानसिकता वाले समझे जाते हैं और इसके विरोधी पिछड़े, रूढ़िवादी और संकीर्ण मानसिकतावादी ।’ निश्चित रूप से समाज में आज दोनों ही श्रेणियों के लोग रूढ़िवादी नजर आते हैं ।
पूर्ण स्वतंत्रता के लिए हाय-तौबा मचाने वाले अभिव्यक्ति को बस एकपक्षीय मानने की भूल करते हैं और विरोधी अपनी भावनाओं को इतना महत्व दे देते हैं कि उनके लिए वह गले की हड्डी बन जाती है ।
आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी व्यक्ति समझौतावादी रुख अपनाता ही नहीं है-या तो कोई विचार पूरी तरह गलत सिद्ध किया जाता है या पूरी तरह सही । संवाद के दोनों पक्ष बिल्कुल दो समानांतर धाराओं में चलते हैं, सम्मिलन की कोई संभावना ही नहीं होती ।

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